माना है दुष्प्राप्य लक्ष्य पर नहीं असंभव|
परमपिता की इस धरती पर सब कुछ संभव|
मूर्ख है जो कहता अस्तित्व तुम्हारा कम है|
अखिल विश्व संस्कृति तरु के जड़ में ही हम है|
हम हिंदू हैं जड़ चेतन को अपना माना|
माया ममता भस्म पहन केसरिया बाना |
हमीं सनातन सत्य सदा उद्घाटित करते |
हमीं विश्व में नयी चेतना का स्वर भरते |
हम आलोक पुत्र, अमर संस्कृति संवाहक
और सनातन धारा के हम ही तो वाहक |
हम तम के मस्तक पर चढ ब्रम्हास्त्र चलाते |
असुरों की छाती पर भगवा ध्वज फहराते |
हम आसेतु हिमालय भारत माँ के बेटे |
विधि के लिखे लेख अटल भी हमने मेटे |
खेल खेल में केहरी के दांतों को तोड़ा |
कालीदह को भी विषहीन बना कर छोड़ा |
देवतुल्य थे जो उन आर्यों के ही वंशज |
सबसे पहले हम आयें वसुधा के अग्रज |
और ब्र्म्ह्वादी तू क्या उल्टा कहता है |
महासती माता को ही कुल्टा कहता है |
हाय सनातन संस्कृति को शतखंड किया है |
तूने शब्दों की मर्यादा भंग किया है |
हम दिति और अदिति के सुत वसुधा के मुख हैं |
हमको पाकर इस दुनिया में सुख ही सुख है |
हमने कब मक्का को शोणित से नहलाया ?
अथवा जेरूसलम में भगवा ध्वज फहराया ?
हमने हृदयों को जीता जब भूमि जीतते थे वे |
महाबुद्ध को अपनाया जब अस्थि सींचते थे वे |
महावीर जिन कहलाये भावों को जीता |
युद्धभूमि में श्रीहरी के मुख निकली गीता |
वाही अमरवाणी गुरुओं के मुख से गूँजी |
वेदवाणी सारंग ग्रन्थ साहिब में कूकी |
सुनो वही हिंदू है जो प्रणवाक्षर जपता |
एक उसी सतनाम में हरपल रमता रहता |
अरिहंताणं णमों भाव में रत रहता है |
महाबुद्ध के श्रीचरणों में नत रहता है |
जो गीता, गंगा, गायत्री का साधक है |
कण कण शंकर, भारत माँ का आराधक है |
अग्निपंथ का अनुयायी जो सार भस्म करता है |
महानिशा में महाचिता पर महारास रचता है |
जो किन्नर के स्वर में गाता, तांडव भी करता है |
और अधर्मी के तन से तत्काल प्राण हरता है |
और धर्म भी कहाँ व्यक्तिगत, वही पद्यति अब भी |
हाँथ जोड़ पूजा करने की सतत संस्कृति अब भी |
क्या तुम गुदा द्वार से खाते, जब हम मुख से खाते ?
फिर बोलो इस दुनिया को तुम उल्टा क्यों बतलाते ?
कहाँ मुखौटा है हिंदू , किस मुख ने यह पहना है ?
यह मेरी भारत माता का सर्वोत्तम गहना है |
परमपिता ही पति जिसके, सिंदूर स्वर्ण हिंदू है |
भारत माता के मस्तक पर शोभित शुभ बिंदु है |
चलो मुखौटा ही अच्छा तुम सनातनी हम हिंदू |
तुममे हिंदू नहीं बिंदु पर हम तो शाश्वत सिंधु |
तुमने छोड़ा हम अपनाएं, हम छोड़े तुम गाओ |
आओ हम भी जूठा खाएं तुम भी जूठा खाओ |
मुझको जूठन भी मंगल पर तेरा तो नाजिस है |
समझ गया मैं भी असमझ अब, यह किसकी साजिश है |
किन्तु चक्र, दुष्चक्र, कुचक्रों की भी गति होती है |
भले कहें हम जड़ पत्थर को उनमे मति होती है |
इसीलिए तो अनगढ़ में भी प्रभु मूरत बन जाती |
तुम सूरा कहते ही रहते वह सूरत बन जाती |
अंतरग्रही प्राणियों ने जो ब्रम्ह वमन अपनाया |
वह सब कुछ भी तो मंगल है, धन्य देव की माया |
अभी शैशवावस्था में पर कलियुग तो कलियुग है |
पर असत्य के साथ विभव है, इसी बात का दुःख है |
करुणा, मैत्री और उपेक्षा, मुदिता मंगलकारी |
चलो बुद्ध की सहज मान्यता भी मैंने स्वीकारी |
वज्रपाणि श्रीमहाबुद्ध ने गीता ही तो गाया |
वेद लवेद बना कर छोड़ा, वेदों को अपनाया |
निर्ग्रंथों ने उसी मनीषा को स्वीकार किया है |
जिस पर दश के दश गुरुओं ने अपना प्राण दिया है |
भारत की यह चिंतन धारा अविछिन्न हिंदू है |
राजनीती के समरांगण में छिन्न भिन्न हिंदू है |
शून्यवाद, दशमलव दिया इस हेतु चलो गरियायें |
हमको गणित नहीं आता तो रोमन ही अपनाएं |
किन्तु जहाँ भी दीप जलेगा, ज्योतित तो हिंदू है |
यही नींव में और शिखर पर शोभित तो हिंदू है |
कोख लजाते धिक् धिक् भारत तुझको लाज नहीं आती ?
माँ को माँ कहने से हटते नहीं फट रही क्यों छाती ?
हिंदू ही सारा भारत, यह भारत ही हिंदू है |
मानवता का शीर्ष मुकुट मणि, इंदु शिखर इंदु है |
और व्युत्पति हिंदू की, शुभ हनद पारसी भाषा |
नष्ट हो गया, शेष किन्तु हम, खोज रहा है नासा |
हमने सेतु बनाकर बाँधा, देशों को जोड़ा है |
तू तो उनका अनुगामी, केवल जिसने तोड़ा है |
राणा, शिवा, दधिची, इंद्र और रामकृष्ण से ज्ञानी |
बाली, बलि, महाबली, बालक अभिमन्यु का पानी -
आज नीलाम हुआ देखो, कितने मुख बने मुखौटे ?
पिता हमारे पूर्वज अब भी हिंदू ही कहलाते |
उदधि दुह्नेवालों ने जो रत्न चतुर्दश पाया |
जिसको वेदों, उपनिषदों ने मुक्त कंठ से गाया |
राग, रागिनी, ताल, छंद, स्वर, अक्षर सब हिंदू है |
हम पर निर्भर है जग सारा, कब निर्भर हिंदू है ?
हम उदात शिव भाव से जगती से जो कुछ लेते हैं |
यग्य याग अपना सहस्त्र गुण कर इसको देते हैं |
अंधाधुंध विदोहन करने में रत दुनिया सारी |
प्रलयंकर से खेल रही बस प्रलय की है तैयारी|
प्रकृति प्रदूषित कर डाला है सारा मनुपुत्रों ने |
यही सिखाया है क्या हमको ब्रम्ह, धर्मसूत्रों ने ?
नहीं नहीं विघटन की बेला पर अब पुनः विचारें |
विकृति त्याग माँ को अपनाएं संस्कृति को स्वीकारें |
किन्तु विकृति को संस्कृति कहना कहाँ न्यायसंगत है ?
यहाँ वहाँ हर जगह भयावह दहशत ही दहशत है |
दहशतगर्दी के विरुद्ध अब शस्त्र उठाना होगा |
स्वयं विष्णु बनकर असुरों पर चक्र चलाना होगा |
और हमें यह उर्जा भी तो हिंदू शब्द ही देगा |
विधि आधारित इस जगती से न्यायोचित हक लेगा |
बौद्ध, जैन, सिख, शैव, शाक्त और सनातनी सब हिंदू |
एक एक जन हिंदू ही हैं बोलो कितने गिन दूँ ?
जहाँ कहीं भी न्याय हेतु प्रतिरोध दिखाई पडता |
मानवता के हेतु कहीं भी रोष दिखाई पडता |
और विवेक की अग्नि में जल कर क्षार व्यर्थ परिभाषा |
विश्व प्रेम की राह चले जन कहीं न तिरछी भाषा |
वहाँ वहाँ हिंदू स्थापित, हिंदू मानवता है |
इसे मिटा देने को तत्पर, आतुर दानवता है |
द्वैत मानता है जग तो अद्वैत मानते है हम |
तुमको भी तो कहाँ पृथक विद्वेष मानते हैं हम ?
हम तो बस उनके विरुद्ध जो द्वेष कर रहे हमसे |
ग्रन्थ ही जो उल्टा सिखलाता, व्यर्थ जल रहे हमसे |
और सुनो यह धर्म ही है जो एकसूत्र करता है |
कारण और निवारण कर्ता, भर्ता, संहर्ता है |
तुम भी इसे मानते हो पर स्वयं भ्रमित, भ्रम रचते |
मैं क्या तुम्हे फसाउंगा तुम खुद ही जाते फंसते |
ब्रम्ह निवारण है भ्रम का तुम भ्रम को देव बताते |
और समर्थन में जाने कितने यायावर आते |
जो बल को कमियां कहते, कमियों को बल बतलाते|
धूप-छाँव का खेल परस्पर, इंद्रजाल दिखलाते |
हा हा यह माया का दर्शन, जृम्भणअस्त्र स्वागत है |
इससे ऊपर भी कुछ है जो आगत और विगत है |
उसी तत्व की शपथ मुखौटा नहीं वदन है हिंदू |
स्थापित ब्रम्हांड जहाँ वह दिव्य सदन है हिंदू |
इससे रौरव भी रोता हर नरक त्रस्त रहता है |
इसका शरणागत हो करके स्वर्ग स्वस्थ रहता है |
हिंदू भाव धरी विरंचि जब चौदह तल रचता है |
उसी भाव को धार विष्णु रज गुण लेकर रमता है |
और भाव में कमी हुई तो रूद्र कुपित हो जाते |
इंद्र श्रृंखला तोड़ गगन में संवर्तक छा जाते |
मुझे करो मत विवश करूँ मैं आवाहन रुद्रों का |
नंदिकेश, शिव, वीरेश्वर का अनबंगी क्रुद्धों का |
कृत्या इसके पास भयावह दिवारात्रि रहती है |
इसका इंगित पाकर सोती इंगित पा जगती है |
यह अथर्व ब्रम्हास्त्र भूर्भुवः स्वः में प्रलय मचेगा |
डामर के हांथों में डमरू, डिंडिम नाद करेगा |
फिर मत कहना हिंदू सर्वदा आतंकी होते है |
मुझे सांत्वना दो लोगों अब देखो हम रोते हैं |
प्रतिरक्षा की तैयारी करना कुछ गलत नहीं है |
सुन लो जो सामर्थ्यवान है, प्रतिपल वही सही है |
इसीलिए श्री राम कालिका की पूजा करते हैं |
धनुष बाण लेकर हांथों में क्रीं काली कहते हैं |
वन्देमातरम इसका बोधक क्रीं काली फट स्वाहा |
किन्तु शक्तिमानों ने भी कब संस्कृति ग्रसना चाहा |
आज इसे ग्रसने की कोशिश करते इसके सुत हैं |
बुत से नफरत करने वाले मंदिर में कुछ बुत है |
इन्ही बुतों को खंडित करने दयानंद आये थे |
इन्हीं के लिए पुनर्जागरण में माँ ने जाए थे |
किन्तु किसी ने भी तो इसको नहीं मुखौटा बोला |
गंगा माँ की जलधारा में नहीं जहर था घोला |
आज हुआ जो पाप भयानक तुमसे अनजाने में |
शायद मैं भी इसका भागी हूँ किंचित माने में |
अगर तुम्हे कुछ कहना ही था मुझको बोला होता |
एक मंच क्या तेरी बलि मैं यह जग ही तज देता |
किन्तु सतत जीवन पद्यति को तूने गाली दी है |
कह डालो जो भी कहना है अब भी अगर कमी है |
चलो तुम्हारे ही स्वर में कुछ और कह रहा हूँ मैं |
कवितायें खुद ही बहती तुम कहो रच रहा हूँ मैं |
और तुम्हारे स्वर में हिंदू आतंकी, पापी है |
जब देखो उत्पात मचाने वाला अपराधी है |
भ्रष्ट कर दिया इसने पावन पथ उस पैगम्बर का |
जो मरियम का पति जन्नत में, यीशु जिसके दर का |
इसके सारे संत सदा रमणी में ही रमते हैं |
झूठ बोलते हैं मर्यादा भंग किया करते हैं |
हर हिंदू के प्रति कुछ गाली क्रतिधार्मिता होती |
हिंदू पथ पर चल जन्नत में नहीं मिलेगा मोती |
इसके ठेकेदार चुनिन्दा, कुछेक संगठन ही हैं |
और इसे प्रोत्साहित करने के भी अपराधी हैं |
सदा मार खाना और पिटना नियति हिंदुओं का हो |
कभी फैलना नहीं, सिमटना नियति हिंदुओं का हो |
किन्तु हमारे मत में धर्मविरोधी कब हिंदू है ?
प्रगतिशीलता, नवाचार प्रतिरोधी कब हिंदू है ?
नहीं कभी संकीर्ण रहा अब भी उदार यह ही है |
रूढ़ी और पाखण्ड विरोधी नवाचार यह ही है |
इस उदारता का प्रतिफल भी इसने खूब चुकाया |
अपनी सब सीमायें खोईं टूटा फूटा पाया |
चलो मिला जो भी अच्छा है, वह भी टूट रहा है |
देखो कितना क्षेत्र हमारा हमसे छूट रहा है |
इस पर रुकने और विचार करने का समय नहीं है |
अब तो किंचित भी विलाप करने का समय नहीं है |
पांचजन्य के हांथो को गांडीव उठाना होगा |
अगर हमें जिन्दा रहना है उन्हें सुलाना होगा |
नहीं तो फिर आने वाली पीढियां हमें कोसेंगी |
नहीं सोचने को कुछ होगा जब भी वे सोचेंगी |
इसीलिए पुरखों की तुमको शपथ सुनो, अब जागो |
चाहे कोई कुछ भी बोले डटे रहो, मत भागो |
तुमको बहकाने को पग पग पर दानव मायावी |
किसकी ममता में खोए, क्षणभंगुर सब दुनियावी |
सुनो मोक्ष पाने का पथ बस शरशय्या पर सोना |
अगर नहीं इसको मानोगे, व्यर्थ पड़ेगा खोना |
यह दुर्लभ मानव तन केवल कुरुक्षेत्र ही तो है |
और तुम्हारी कीर्ति रश्मियाँ यत्र तत्र ही तो है |
चलो, उठो, लपको सूरज को यह मीठा फल तेरा |
तुमको भडकाने का किंचित नहीं स्वार्थ कुछ मेरा |
बस मैं यही कहूँगा अपनी ताकत को पहचानो |
बजरंगी के ब्रम्हचर्य हिंदू की ताकत जानो |
कितने जामवंत आयेंगे बोलो तुम्हे उठाने ?
कुम्भकर्ण बन कर सोये हो भेजूं किसे जगाने ?
पहचानों इन शब्दों में ही वेदमंत्र है प्राणी |
संसृति रवि किरणों ने पहले सुनी वेद की वाणी |
उसे सरल करने को उपनिषदों ने जोर लगाया |
व्यर्थ हुआ जब इतिहासों ने छंद बद्ध कर गाया |
महाकाव्य भी जब थक बैठे तुम्हे जागते मानव |
गुरुवाणी में गीता गूंजी, वही रूद्र का तांडव |
नेति नेति का अंत नहीं है कोई अंतिम भू पर |
ऐसा कोई शब्द नहीं जो नहीं गया हो छू कर |
तुम हो राम कृष्ण के वंशज, रोम रोम में रमता |
तुम ही उसको तज देते हो, वह तुमको कब तजता ?
जो तेरे भीतर बाहर है, उसको नमन हमारा |
ब्रम्ह कहे या ईश्वर बोले, एक वेद की धारा |
इसी सत्य की चिर शाश्वत धारा हिंदू है |
हमको तो प्राणों से भी प्यारा हिंदू है |