मंगलवार, 11 जनवरी 2011

श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः

राष्ट्रीय युवा दिवस पर विशेष

एक बहुत पुरानी कथा है | आपने भी सुनी होगी | मैं एक बार फिर से दुहराता हूँ | किसी नगर में एक लालाजी रहते थे | अपने बुद्धि और चातुर्य के बल पर उन्होंने अथाह धनराशी संकलित कर लिया था | उपभोक्ता अधिकारों का तो उन्हें इतना भान था , जितना आधुनिक काल में कन्जूमर फोरम के अधिकारियों को भी न होगा | लालाजी जिस वस्तु को एक बार भी देख लेते थे और उसका मूल्य निर्धारित कर देते थे , फिर उससे टस मस होना मुमकिन ही नहीं था | बार्गेनिंग करने में उनका कोई जवाब ही नहीं था | तात्पर्य यह की कोई भी उन्हें ठग नहीं सकता था | कहते हैं की गुण छुपाये नहीं छुपता , लिहाजा उनके इस व्यवहार कुशलता और व्यापारिक अंतर्दृष्टि की हनक पुरे देश में फ़ैल गई | इस बात को चार ठगों ने भी सुना | ठग भी बड़े धुरंधर | ऐसा कोई सयाना नहीं जिसको इन्होने ठगा न हो | ठगों ने लालाजी को ठगने का संकल्प लिया |” क्रतुमय पुरुषः” अर्थात मनुष्य संकल्पमय है | लिहाजा ऐसा कोई भी कार्य नहीं जो मनुष्य ठान ले और वह पूर्ण न हो सके | भाग्य ने ठगों को लालाजी को ठगने का अवसर भी प्रदान कर दिया |

लालाजी के मन में एक गाय खरीदने की इच्छा ने जन्म लिया | टेंगना गांव में एक पशु मेला आयोजित हुआ | लालाजी वहाँ गएँ और एक उत्तम नस्ल की गाय उन्होंने ५०० रूपये देकर खरीद लिया | गाय को लेकर वे अपने घर आने लगे | चरों ठगों ने अलग अलग लालाजी की गाय को बकरी कहना शुरू कर दिया | पहले तो लालाजी क्रोधित हुए और पहले ठग को डाट कर भगा भी दिया लेकिन फिर वाही बात दूसरे ठग ने भी कही | लालाजी को बहुत गुस्सा आया साथ ही सशंकित भी हुए और जब तीसरे ठग ने भी गाय को बकरी कहा तो लालाजी से नहीं रहा गया और उन्होंने पूछ ही लिया , ” भाई ! तुम्हे हुआ क्या है ? इतनी लंबी चौड़ी गाय को बकरी क्यों कह रहे हो ? ठग ने कहा , श्रीमान जी ! लगता है आपकी आँखों को कुछ तकलीफ है | भला बकरी को बकरी नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे ? अब लालाजी को काटो तो खून नहीं | ठग समझ गएँ की लाला जाल में फंस चूका है | चौथा ठग आया और उसने भी वही बात कही जो उससे पहले के ठगों ने कही थी , साथ ही लालाजी से पूछा की उन्होंने यह बकरी कहाँ से खरीदी है ? लालाजी ने बता दिया | अब वह ठग बोला , ” श्रीमान जी ! इसमे आपका कोई दोष नहीं | जिस गांव से आपने यह बकरी खरीदी है , उस गांव के लोग तंत्र मंत्र जानते है | उनके पास जादू की एक लकड़ी है जिसे वे लोग क्रेताओं के सिर पर फिरा देते हैं | क्रेताओं को इस बात का पता भी नहीं चलता और उन्हें बकरी , गाय और गाय ऊंट नजर आने लगती है | अच्छा आपने इस बकरी को कितने रुपये में ख़रीदा ? लालाजी ने बता दिया | ठग बड़े जोर से चिल्लाया , ” घोर कलियुग है भाइयों ! देखो किसी ने ५० रुपये की बकरी लालाजी को ५०० रुपये में बेच दी और लालाजी भी इसे गाय समझ कर बड़े शान के साथ लिए जा रहे हैं |” लालाजी अब सम्मोहित हो चुके थे | ठगों ने एक प्रस्ताव रखा , ” मान्यवर ! हम आपकी कोई मदद नहीं कर सकते , हाँ , इतना अवश्य है की जिस बकरी को आपने गाय समझ कर ५०० रुपये में क्रय किया है , उसे हम अधिक से अधिक १०० रूपये में खरीद सकते हैं ” मरता क्या न करता ? लालाजी ने हिसाब लगाया …..५० रुपये की बकरी का यह भला आदमी १०० रूपये दे रहा है , कुल मिलाकर ५० रूपये का मुनाफा होगा | जो गया सो गया ५० रुपये नफे में अब इस बकरी को बेच देने में ही भलाई है , और यह सोचकर लालाजी ने ५०० रुपये की गाय ठगों को मात्र १०० रूपये में बेच दी | मनोविज्ञान की भाषा में इसे CONFORMITY EFFECT कहते हैं | भारत के लगभग प्रत्येक मनोविज्ञानशाला में प्रतिवर्ष इससे सम्बंधित प्रयोग होते रहते हैं और सभी का परिणाम एक जैसा ही होता है | बड़े से बड़ा आत्मविश्वासी भी सामाजिक प्रभाव के समक्ष घुटने टेक देता है | प्रभाव सब पर पडता है , मात्रा अवश्य ही अलग अलग होती है |

यह तब की बात है जब हमारा देश वैचारिक पक्षाघात का शिकार हो चूका था | आक्रांताओं ने इसे सम्मोहित कर रखा था | भारतीयों के मन में यह बात बैठा दी गई थी कि उनकी कोई जीवन पद्यति नहीं , उनका कोई व्यक्तित्व नहीं | वे काफिर हैं , वे मुशरिक हैं , वे हीदन हैं , वे पेगन हैं | भारत सपेरों का देश है | जादूगरों का देश है | असम में जावोगे तो वहां कि औरते तुम्हें मक्खी बना लेगी | तिब्बत में जावोगे तो लामाओं का बोझा ढोना होगा | समुद्र यात्रा करना महापाप है | भारत का सम्पूर्ण ज्ञान ब्रिटिश पुस्तकालय में रखे एक अलमारी से अधिक कुछ नहीं | बनारस ठगों कि राजधानी है | हरिद्वार में व्यभिचारी संतों का चोगा ओढकर कानून को धोखा देते हैं | शिवाजी एक लुटेरे थे | भारत में औरतों को जबरदस्ती आदमियों के साथ फूंक दिया जाता है | भारतीय अशिक्षित हैं | हिंदू जैसा कोई शब्द नहीं | भारतीयों की कोई राजनैतिक चेतना नहीं , उनकी कोई सामाजिक , आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान नहीं | भारतीय न तो विचारक हो सकते हैं और न ही दार्शनिक | यहाँ आडम्बर और झूठ का बोलबाला है | भारतीय एक अच्छा वकील , एक अच्छा राजनेता , एक अच्छा वैज्ञानिक , एक अच्छा खिलाडी और एक अच्छा सिपाही हो ही नहीं सकता | यह तो White Man’s Burden है | जो लोग बकरदाढ़ी रखते थे उनका सम्मान किया जाता था और शिखा धारण करने वालों का मखौल उडाया जाता था | लोग अपने आपको हिंदू कहने में शर्माने लगे | “” दासता में ही मुक्ति है और प्रभुता में दासत्व ” को अपना आदर्श मानने वाली हमारी सामाजिक व्यवस्था ने पहली बार राजनैतिक दासता का दंश झेला था | यह रामगुलाम वाली आध्यात्मिक दासता नहीं जिसमे एक ब्राम्हण तुलसीदास और एक शुद्र रैदास में राम का सबसे बड़ा गुलाम बनने की सात्विक स्पर्धा हो , यह तो आयातित निरंकुश राजसत्ता की मदांध पाशविक दासता थी एकदम से ”जाके मुख देखे दुःख उपजत , ताको करिबो पडो सलाम ” वाली दुर्दांत दासता |

ऐसे समय में १२ जनवरी सन १८६३ को बंगाल प्रान्त के कलकत्ता में एक संभ्रांत कायस्थ परिवार में बालक नरेन्द्रनाथ का जन्म होता है | सूर्य मकर राशि का संक्रमण कर रहे थे | एक नए युग का प्रादुर्भाव होना था | होनहार बिरवान के होत चीकने पात | यही बालक आगे चलकर भारतीय पुनर्जागरण का सबसे बड़ा उत्प्रेरक स्वामी विवेकानंद बनता है | जब हिंदू सिर झुकाकर इस तरह से अपना परिचय देते थे मानों कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया हो तब वैज्ञानिक समृद्धि के शिखर पर विराजमान अमेरिका में स्वामी विवेकानंद की सिंह गर्जना सुनाई पड़ती है गर्व से कहो की हम हिंदू है और सारा संसार मत्रमुग्ध सा स्वामीजी के इस कथन का अनुसमर्थन करता है | यह कथन किसी ऐरे गैरे नत्थुखैरे का नहीं डेविड ह्यूम , इम्मान्युअल कांट , फित्से , स्पिनोजा , हीगल , स्कोपेन्हावर , आगस्ट काम्टे , हरबर्ट स्पेंसर , जान स्टुअर्ट मिल और चार्ल्स डार्विन जैसे उद्भट पाश्चात्य विद्वानों और उनकी सम्पूर्ण कृतिओं को कंठस्थ कर लेने वाले अप्रतिम अध्येता स्वामी विवेकानंद का था |

उत्थान पतन सृष्टि का अपरिवर्तनीय नियम है | जो जन्म लेता है उसे मरना ही पड़ता है | संसार के सभी व्यक्तियों को सांसारिक कष्ट भोगने पड़ते हैं | स्वामी विवेकानंद को भी इन परिस्थितियों से दो चार होना पड़ा | समय ने उन्हें दाने दाने का मुहताज बना दिया | घर के बर्तन भांड सब कर्ज चुकाने में चले गए | आध्यात्मिक चेतना , भौतिक क्षुधा के सामने नतमस्तक होने ही वाली थी | विवेकानंद ने अपना संकट अपने गुरु के सामने रखा | रामकृष्ण परमहंस ने कहा जाओ माँ से अपनी व्यथा व्यक्त करो , मैं नहीं जाता | विवेकानंद तीन बार गए | तीनों बार उन्होंने ज्ञान , विवेक , प्रज्ञा , धृति ही माँगा | सूरदास कहू कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै | धन की याचना उनके कंठ से नहीं निकली | गुरु को अपनी ओर से कहना पड़ा …..जाओ , तुम्हे खाने और पहनने की कोई कमी नहीं होगी | किशोरावस्था में जिस ईश्वर के अस्तित्व को उन्होंने ख़ारिज कर दिया था , वही ईश्वर अब प्रतिपल छाये की भांति उनके साथ था | मनुष्यों को जिस प्रकार मनुष्य दिखाई पड़ते हैं , उनको आत्म्ब्र्म्ह दिखाई पडता था | मात्र उदर का ही पोषण उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं था , उन्हें तो भारतीयों की खोई अस्मिता उन्हें लौटानी थी |

डॉ विलियम हस्ती ने लिखा ,” नरेंद्र वास्तव में एक प्रतिभाशाली बालक है | मैंने दूर दूर तक यात्रा की किन्तु उसके जैसी संभावनाओं और क्षमताओं वाला कोई लड़का जर्मन विश्वविद्यालयों के दर्शन विभागों में भी नहीं मिला ”

सन १८८८ में स्वामी रामकृष्ण परमहंस के स्वर्गवास के उपरांत स्वामी विवेकानंद युवा सन्यासी के वेश में भारत भ्रमण को निकल पड़े | करतल भिक्षा , तरुतल वासः का उद्देश्य लेकर पैदल ही उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया | बार बार उनके मन में एक ही विचार आता ….मुझे गुरुदेव ने निर्विकल्प समाधी के सुख से वंचित क्यों किया ? वह कौन सा कार्य है जो वह अज्ञात सत्ता मुझसे करवाना चाहती है ?

भारत भ्रमण के दौरान उन्हें विभिन्न प्रकार के अनुभव हुए | वाराणसी के दुर्गाकुंड नामक स्थान पर उन्हें बंदरों ने दौड़ा लिया | स्वामीजी सरपट भागे | पास ही एक अन्य तरुण सन्यासी साधनारत था | उसने चिल्ला कर कहा ….भागो मत , रुको और मुकाबला करो |नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः यह आत्मा बलहीनों के लिए नहीं है | उपनिषदों का यह घोष वाक्य मानों सजीव हो उठा | काशी से प्राप्त यह शिक्षा आजीवन उनके साथ रही |

फिर वह दिन भी आया जब पूरा विश्व वेदों , उपनिषदों , पुराणों , स्मृतियों और महाकाव्यों में वर्णित महान सत्य का साक्षात्कार करने को व्यग्र हो उठा ११ सितम्बर १८९३ शिकागो ( जहाँ पहले केवल एक जंगली प्याज शिकागो उगा करती थी ) के आर्ट इन्स्टिच्युट में भारत की सनातन मेधा स्वामी विवेकानन्द का आश्रय पाकर फूट पड़ी | श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः ……हे विश्व के अमृत पुत्रों सुनों …या दूसरे शब्दों में मेरे अमेरिका निवासी भगिनी और भात्रिगन | इससे पहले के सारे वक्ता मलिन हो गए | स्वामीजी ने एक संक्षिप्त सा उद्बोधन दिया और सात हजार श्रोता मत्रमुग्ध होकर लगातार दो मिनट तक ताली ही बजाते रहें | मानों सरस्वती स्वयं पुरुष वेश धारण कर अपने दिव्य वीणा का वादन कर रही हों | आधुनिकता अकुर पाशविक स्पर्धा की चक्की में पिसते पश्चिमी जगत में सबको अपना मानने वाली दिव्यसत्ता का आध्यात्मिक महाविस्फोट हुआ था | ऐसा महान सन्देश अमेरिकियों ने पहले कभी नहीं सुना था | दूसरे दिन अमेरिका के समस्त समाचार पत्र स्वामी जी के भाषण से पटे पड़े थे |

New York Herald ने लिखा ,” Vivekanand is undoubtedly the greatest figure in the parliament of religions , After hearing him , we feel how foolish it is to send missionaries to this learned nation “

स्वामी विवेकानंद ने सम्पूर्ण अमेरिका और यूरोप का भ्रमण किया और | स्थान स्थान पर उनके प्रवचन आयोजित किये गए | पाश्चात्य जगत द्वारा भारत पर लगाया गया कलंक एक झटके में नेस्तनाबूद हो गया | हमारी सभ्यता रोम और यूनान की सभ्यता से भी अधिक प्राचीन है और अक्षुण्ण है ….इस तरह का भाव एक बार फिर से भारत भुवन में प्रसारित होने लगी |

यह बात कतिपय लोगों को अच्छी नहीं लगी है | भारत की कोई मूल सभ्यता नहीं , आर्य भी अन्यों की भांति एक आक्रांता थे | इस तरह का मिथ्या प्रचार अब भी बदस्तूर जारी है | हे विवेकानंद ! तुम कब आओगे ?

शनिवार, 8 जनवरी 2011

सावधान अब मृत्यु निकट है

फिर संकट घनघोर विकट है, सावधान अब मृत्यु निकट है |

मंदिर जैसे श्राप हो गया,

ध्वज फहराना पाप हो गया |

” हर एक हिंदू आतंकी है ”

यह नारायण जाप हो गया |
आरक्षण की लौह श्रृंखला में बंदी संगम का तट है |

फिर संकट घनघोर विकट है, सावधान अब मृत्यु निकट है |

जिसने रक्त पिलाकर पाला,

देह जलाकर किया उजाला |

इंद्रप्रस्थ के सिंहासन ने

उसपर आज हलाहल डाला |

सीमा के इस ओर प्रलय को आमंत्रण गुपचुप, खटपट है|

फिर संकट घनघोर विकट है, सावधान अब मृत्यु निकट है |

सूरज की किरणों को गाली,

ग्रसने को आतुर है लाली

राहू केतु ने मुंह फैलाया

संग शक्तियां काली काली|

रोज नया नाटक रचता है, यह कैसा मायावी नट है ?

फिर संकट घनघोर विकट है, सावधान अब मृत्यु निकट है |

जमी हुई है तट पर काई,

तलछट में फैली चिकनाई|

हुआ प्रदूषित पूर्ण सरोवर,

पुण्य माघ की बेला आई |
चाहे जितना गंदला हो जल, डुबकी को आतुर जमघट है |
फिर संकट घनघोर विकट है, सावधान अब मृत्यु निकट है |

जनहठ पर नृपहठ है भारी,

निर्वाचित होते व्यापारी |

हुई निरर्थक राष्ट्र चेतना,

भूखी, नंगी जनता सारी |
पापगान में गम कान्हा का सामगान और वंशीवट है |
फिर संकट घनघोर विकट है, सावधान अब मृत्यु निकट है |

जिसने कूल्हों को मटकाया |

कोटि कोटि पण उसने पाया |

वही राजनेता है भारी -

जिसने जनता को भटकाया |

इसे हिला भी नहीं सकेंगे, जमा हुआ अंगद का पग है |
फिर संकट घनघोर विकट है, सावधान अब मृत्यु निकट है |



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गुरुवार, 6 जनवरी 2011

कविताएँ रह गयी अधूरी

कभी न पूरी हो पाती है, मन की मन में रह जाती है |

कैसा शैशव और तरुणाई?

केवल सिसकी और रुलाई|

नियति नटी का नृत्य अनोखा

जब देखो आखें भर आयीं|

मस्त कोकिला भी रोती है जब पंचम स्वर में गाती है |

कभी न पूरी हो पाती है, मन की मन में रह जाती है |

मिटी नहीं हृदयों से दूरी,

कवितायें रह गयी अधूरी|
जाने कितना और है जाना?

यात्रा कब यह होगी पूरी?
संशयग्रस्त बना कर जीवन मृगतृष्णा छलती जाती है |

कभी न पूरी हो पाती है, मन की मन में रह जाती है |

पूरा दीपक, पूरी बाती,

तेल नहीं लेकिन किंचित भी |
बेकारी मजबूर बनाती,

अन्धकार का शाश्वत साथी |
तोड़ रहा दम इक दाने को पौरुष की चौड़ी छाती है |
कभी न पूरी हो पाती है, मन की मन में रह जाती है |

तेरा तो प्रभु सोने का है,

मेरी तो माटी की मूरत|
वंदनीय है तेरा आनन,

मेरी बचकानी सी सूरत |
चिंदी में लिपटे लोगों की छाया भी मुंह बिचकाती है|
कभी न पूरी हो पाती है, मन की मन में रह जाती है |

कहते हैं संघर्ष हमेशा

सत्य सदा विजयी होता है |
जिसमे साहस है वह जीता |
केवल कायर ही रोता है |
यम नियमों के बंधन वाली यह छलना छलती जाती है |
कभी न पूरी हो पाती है, मन की मन में रह जाती है |