रविवार, 6 मई 2012

यूपीटीईटी-अनिश्चितता और संत्रास के १८० दिन

अति हो गयी है,आखिर सहने की भी कुछ सीमा होती है|हरामखोरों ने व्यवस्था के बीच से नयी व्यवस्था निकालने का मन बना लिया है और चाहते हैं की हम हाँथ पर हाँथ धरे बैठे रहें|मीडिया भी बराबर की दोषी है|मैं नहीं चाहता था की भाषा की पवित्रता भंग हो किन्तु जिन्हें हराम का खाने की आदत पड़ जाती है वे पक्के लतिहर होते हैं और जब तक उन्हें जी भरकर लतियाया न जाए वे तर्क की कोई भी भाषा सुनने को तैयार ही नहीं होते|आखिर मीडिया युपीटीईटी परीक्षा के बारे में जानती ही क्या है?और इसे महज एक पात्रता परीक्षा क्यों होना चाहिए?लगता है हरामखोरों का कोई अभ्यर्थी इस परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गया और उसी का खार निकालने के लिए ये लंठशिरोमणि हमारे पीछे लट्ठ लिए फिर रहे हैं|इन हरामियों को यह भी नहीं पता है की युपीटीईटी परीक्षा का स्तर इतना नीचा रखा गया था की कोई भी कक्षा ८ उत्तीर्ण आसानी से इस परीक्षा में तय समय के अंदर ९० अंक प्राप्त कर सकता था,फिर भी लोग अनुत्तीर्ण हुए और उच्च अकादमिक योग्यताधारी अनुत्तीर्ण हुए|बी.एड. डिग्री धारक पास हो गए, बी टी सी वाले अपेक्षित परिणाम नहीं ला सके|पी एच डी तो एकदम टांय टांय फिस्स ही हो गए|लिहाजा इन लोगों ने एक नया शिगूफा छोड़ा|कहने लगे की युपीटीईटी में भ्रष्टाचार हुआ है..अबे काहे का भ्रष्टाचार?और क्या सबूत है तुम्हारे पास भ्रष्टाचार का?कहते हैं की २७ हजार ओएमआर शीट पर सफेदा लगा हुआ था|कन्नौज से कंचन त्रिपाठी परेशान हैं, बताती हैं की भूलवश उनसे भी उक्त ओएमआर शीट पर कहीं सफेदा लग गया था|उन्होंने मुझे फोन किया और जानना चाहा की कहीं उनका भी ओएमआर शीट तो इन हरामियों के पास नहीं पहुँच गया|अब मैं कोई प्रशासनिक अधिकारी तो हूँ नहीं की उनकी बात का कोई समुचित उत्तर दे पाऊं किन्तु इतना अवश्य है की मैंने युपीटीईटी ही नहीं ऐसी अनेक परीक्षाएं देखी हैं, जहाँ परीक्षार्थी धड़ल्ले से सफेदे का प्रयोग करता है और यह रिजेक्शन का कोई आधार भी नहीं बनता, और फिर यह भी तो हो सकता है की अपनी गर्दन फंसती देख कर किसी राजनैतिक षड्यंत्र के तहत अधिकारियों ने खुद ही २७ हजार ओएमआर शीट चुने हों और बेचारे अभ्यर्थियों को फ़साने के लिए झूठमूठ सफेदा लगा दिया हो|समरथ को नहीं दोष गुसाईं..जिन हरामखोरों ने इस प्रक्रिया को रोकने के लिए नक़ल माफियाओं,शिक्षा माफियाओं,शिक्षा शत्रुओं,बकवास सेलेक्शन अधिकारी(बी.एस.ए) अन्य प्रशासनिक अधिकारियों और सबसे बढ़कर राजनैतिक सपाई गुंडों के इशारे पर कभी सरिता शुक्ला तो कभी कपिलदेव लाल बहादुर यादव का मुखौटा धारण किया हो..वे इस प्रक्रिया को रोकने के लिए पवित्र और अपवित्र किसी भी तरह के हथकंडे अपना सकते हैं| सुनने में आया है की सरकार पराशिक्षकों की नियुक्ति करने का मन बना चुकी है|वैधानिक दृष्टि से यदि कोई इसके विरुद्ध अदालत का दरवाजा नहीं खटखटाता है तो कोई तात्कालिक बाधा भी नहीं है, सरकार कह देगी की हम शिक्षकों की नियुक्ति थोड़े ही कर रहे हैं, यह तो पराशिक्षक हैं और इसलिए इन पर एन सी टी ई के प्रावधान नहीं लागू होने चाहिए|केन्द्र सरकार के पास राष्ट्रपति के निर्वाचन में सपा के तलुवे चाटने की मजबूरी है लिहाजा ऐसा हो भी सकता है|केन्द्र सरकार ने २००९ में शिक्षा का क़ानून पारित किया,इससे पहले ही माननीय मुरली मनोहर जोशी ने सर्व शिक्षा अभियान का श्रीगणेश कर दिया था|तत्कालीन एन डी ए सरकार के इस कदम को हरामजादे तथाकथित धर्मनिरपेक्षों ने शिक्षा का भगवाकरण कहा|जोशी जी डिगे नहीं और सर्व शिक्षा अभियान को मजबूती से लागू करवा कर ही माने|केन्द्र से एन डी ए सरकार की विदाई होते ही शिक्षा को फिर से एक दोयम दर्जे की वस्तु माना जाने लगा|जहाँ तक मुझे ज्ञात है भारत का एक सामान्य नागरिक भी मूल्य संवर्धित कर के अंतर्गत प्रत्येक वस्तु पर २ प्रतिशत शिक्षा कर देता है और हरामियों के पास शिक्षा के मद में खर्च करने के लिए फूटी कौड़ी भी नहीं है| लोग आज में जीते है,कल क्या होगा उन्हें चिंता नहीं है|तात्कालिक लाभ और व्यक्तिगत हितों के लिए हम दीर्घकालिक उद्देश्यों तथा सामूहिक हित साधन पर ध्यान देना ही नहीं चाहते|आप किसी से भी पूछ लीजिए की वे अपने बच्चों को किस अध्यापक से पढ़वाना चाहेंगे?उनसे, जो कक्षा ८ के स्तर का भी प्रश्न हल नहीं कर सके अथवा उनसे जो अकादमिक में कमजोर होने के वावजूद कक्षा ८ स्तर तक के समस्त प्रश्नों को कुशलता के साथ कम से कम समय में हल कर देते हैं और जिनके पास बाल मनोविज्ञान की अच्छी समझ भी है,क्योंकि मनोविज्ञान पर आधारित प्रश्नों कों हल करने में भी उनकी कुशलता की परीक्षा ली जा चुकी है|शायद आपको संतोषजनक उत्तर प्राप्त हो जाए?अब क्या यह मान लिया जाए की जिस बात को एक सामान्य सा व्यक्ति समझता है उसे समाजवादी नहीं समझता तो यह भी सही नहीं है|वस्तुतः समाजवादी एक कठिन किस्म के जीव होते हैं और अनर्गल करना तो इनके शिराओं में रक्त बनकर बहता है|यह मामले कों सुलझाना ही नहीं चाहते क्योंकि इससे इनके राजनैतिक स्वार्थ की सिद्धि होती है|मैं जानता हूँ की इसे पढ़ने के बाद बहुत से समजवादी पिट्ठुओं को बहुत बुरा लगेगा और वे यह भी कह सकते हैं की अभी तो सरकार ने अपना रूख भी स्पष्ट नहीं किया है फिर आप सरकार कों विपक्षी दलों की भाँती क्यों कोस रहे हैं?इसका सीधा सा जवाब है की आप आँख खोलकर देखना ही नहीं चाहते|क्या आपको अखिलेश यादव द्वारा चुनाव पूर्व की गयी घोषणा याद है?अरे छोडिये अभी हाल ही में राष्ट्रीय सहारा और अमर उजाला नामक दो समाजवादी मुखपत्रों ने युपीटीईटी के संदर्भ में जिस तरह की अखबारबाजी की है क्या उसे देखकर भी आपको लगता है की हमारे साथ न्याय होगा और अखिलेश नामक यह आस्ट्रेलियाई विद्यार्थी आपको आपकी नौकरी चांदी के थाल में सजाकर आपको देगा?कभी नहीं|राम गोविन्द चौधरी ने बयान दिया और समाजवादियों की तरफ से इसका कोई खंडन भी नहीं आया|क्या युपीटीईटी उत्तीर्ण अभ्यर्थी इतने मूर्ख हैं की आपकी मंशा कों भी नहीं समझते?स्पष्ट है की अब ईंट का जवाब पत्थर से देने का वक्त आ गया है|मैं कम्युनिस्ट नहीं हूँ किन्तु इस बात को अच्छी तरह से जानता हूँ की जब लोकतंत्र विफल हो जाता है तो बन्दूकतन्त्र, लोकतंत्र का एक अच्छा विकल्प हो सकता है| सरकार हमारी बात नहीं मानना चाहती क्योंकि ऐसा करने से उसकी काली कमाई पर ग्रहण लग जाएगा|बी.एस.ए एक एक नियुक्ति में चार चार लाख रूपये नहीं कमा पायेंगे,लिहाजा हमारे पास आर्म्ड रिबेलियन (सशस्त्र क्रांति) के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता और अभ्यर्थी इस बात कों जानता है की परीक्षा के मद में १० हजार रूपये खर्च करने के बावजूद ठगा जाने पर चार हजार रूपये और खर्च कर एक रिवाल्वर खरीदना और आततायियों कों सजाये मौत देने के बाद जिस तरह के शहादत की उपलब्धि होगी वह केवल ७२ हजार अभ्यर्थियों के हित में ही नहीं होगा बल्कि इसके बाद शिक्षा के क्षेत्र में एक नए युग का पदार्पण भी होगा|आप इसे भडकाना कह सकते हैं,और हाँ मैं अभ्यर्थियों कों भडका ही रहा हूँ क्यूंकि मेरे पास और कोई भी विकल्प शेष नहीं है|मीडिया ने हमें दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका है|न्यायालय से हमें प्रतिदिन तारीख पर तारीख मिल रही है|शासन, दुशासन बन कर जनता रुपी द्रौपदी का चीर हरण करना चाहता है और शिक्षा माफियायों ने हमें कहीं का छोड़ा ही नहीं|ऐसे में हमारे पास विकल्प ही क्या है?यदि कोई अभ्यर्थी टी.जी.टी सोशल साइंस के लिए अपना अभ्यर्थन करना चाहे तो उसे इतिहास,राजनीति शास्त्र,अर्थ शास्त्र और भूगोल में से कम से कम दो विषयों के साथ स्नातक उत्तीर्ण होना पड़ेगा|अब जिनके पास इनमे से एक ही विषय है वह क्या करेगा?घास छीलने के लिए भी एक विशेष प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है और मुझे लगता है की जीवन के चालीस वसंत देख चुके नाकारा अभ्यर्थियों कों अब इस उम्र में कोई चरवाहा विश्वविद्यालय घास छीलने का भी प्रशिक्षण नहीं देना चाहेगा|सरकार को हमारी स्पष्ट चेतावनी है की मौजूदा विज्ञापन के प्रारूप में बिना कोई छेड़खानी किये तत्काल नियुक्ति प्रक्रिया प्रारम्भ करवाए अन्यथा इसके घातक परिणाम होंगे और इन सभी परिणामों की जबावदेही आगे चल कर अखिलेश और उसके गुर्गों को ही देना होगा और मैं यह चाहूँगा की इस पत्रक को अधिक से अधिक संख्या में प्रकाशित करवा कर बांटा जाए ताकि जुलाई तक कोई स्थायी समाधान न निकलने की दशा में सशस्त्र आंदोलन की भूमिका भी तैयार हो सके|

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

युपीटीईटी-न उगलते बने,न निगलते बने

महाभारत में एक श्लोक है –
यस्म यस्म विषये राज्ञः,स्नातकं सीदति क्षुधा|
अवृद्धिमेतितद्दराष्ट्रं,विन्दते सहराजकम्||
अर्थात, हे राजन!जिन जिन राज्यों में स्नातक क्षुधा से पीड़ित होता है,उन उन राज्यों की वृद्धि रुक जाती है और वहाँ अराजकता फ़ैल जाती है|बुभुक्षितं किं न करोति पापं की तर्ज पर महाभारतकार ने राजा को चेतावनी देते हुए स्पष्ट रूप से यह निर्देशित किया है की योग्यतम को उसकी आजीविका से विरत करना,अराजकता को आमंत्रित करना है|यह तब की बात है,जब गिने चुने मेधावी छात्र ही स्नातक हो पाते थे और जब इस देश में प्रजा के व्यापक हित में अपने स्वार्थ की तिलांजलि देने वाले कर्मठ,नीतिनिपुण और धर्मग्य राजा हुआ करते थे|आज परिस्थितियां परिवर्तित हो चुकी हैं|किसी भी परीक्षा में ३२ प्रतिशत अंक पाने वाला विद्यार्थी अनुत्तीर्ण होता है और २९ प्रतिशत मत पाने वाला उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनता है|१ अरब जनता की आँखों के सामने पागलों की तरह गोलियाँ बरसाने वाला जेल में भी फाइव स्टार स्तर तक की सुविधाओं का लाभ उठाता है और जिसने अपने पूरे जीवन में एक चींटी भी नहीं मारी,वह नारी होने के वावजूद दुस्सह यंत्रणा भोगने को विवश है,क्योंकि वोट की राजनीति ने उसके माथे पर आतंकवादी होने का कलंक लगा दिया है|स्थितियां दिन प्रतिदिन बद से बदतर होती जा रही हैं और हम कानून व्यवस्था के नाम पर निर्दोषों को दण्डित करने तथा दोषियों को बचाने के मिशन में तन्मयता के साथ जुटे हुए हैं|नक्सली आकाश से नहीं टपकते,जब राज्य के हाथों में स्थित दंड निरंकुश हो जाता है, तब मासूम भी अपने हांथो में आग उगलने वाली बन्दूक थामने को विवश हो जाता है|
बात युपीटीईटी के सन्दर्भ में हो रही है|विगत १८ अप्रैल को, जावेद उस्मानी की अध्यक्षता में टीईटी के सन्दर्भ में गठित हाई पावर कमेटी ने अपनी संस्तुति मुख्यमंत्री को प्रेषित कर दिया है|समाचार पत्रों के आलोक में यह तथ्य सामने आया है की युपीटीईटी परीक्षा की शुचिता पर कोई भी प्रश्नचिन्ह नहीं उठाया जा सकता अतः युपीटीईटी को भंग न करते हुए इसे अर्हताकारी परीक्षा के स्थान पर, पात्रताकारी परीक्षा बना दिया जाय|ध्यान देने योग्य बात है की अगले ही सत्र में यदि सहायक अध्यापकों की रिक्तियां तत्काल प्रभाव से नहीं भरी जाती हैं तो उत्तर प्रदेश में सर्व शिक्षा अभियान पूरी तरह से विफल होने के कगार पर खडा होगा|अतः पूर्व विज्ञापित नियम में संशोधन करना न सिर्फ इस प्रक्रिया को उलझा देना है वरन प्रदेश ही नहीं,देश को भी शिक्षा के मद में मिलने वाले आर्थिक सहायता पर संकट के बादल मडराने के प्रबल आसार है|हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा की इस देश को शिक्षित बनाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाएं अपना अमूल्य योगदान देती हैं और यदि उत्तर प्रदेश के प्राथमिक शिक्षा विभाग में विज्ञापित नियुक्तियों के संदर्भ में वैधानिक खींचातानी और राजनैतिक हीलाहवाली का कोई भी मामला इन अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के संज्ञान में आता है तो देश को प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में मिलने वाली आर्थिक मदद रोकी जा सकती है|अभी भी इस देश में शिक्षा के मद में सकल घरेलु उत्पाद का महज ४.१ फीसदी ही व्यय किया जाता है और प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में तो यह १ प्रतिशत से भी कम होगा|ऐसी स्थिति में पूर्व विज्ञापित प्रक्रिया में छेड़छाड़ अभ्यर्थियों के मन में रोष का संचार करेगा और पूरे प्रदेश को अराजकता की स्थिति का भी सामना करना पड़ सकता है|
युपीटीईटी के संदर्भ में प्रक्रिया में छेड़छाड़ करने के पीछे न तो कोई विधिक शक्ति है और न ही कोई नैतिक आधार,ऐसे में,अगर विज्ञप्ति निरस्त होती है तो इसका एकमात्र कारण राजनैतिक विद्वेष की भावना ही होनी चाहिए|यह कहना की अन्य राज्यों ने भी टीईटी को मात्र एक पात्रता परीक्षा ही रखा है और इसे अर्ह्ताकारी नहीं बनाया है तर्कशास्त्र के नियमों की घनघोर अवहेलना है|क्या माननीय जावेद उस्मानी जी यह बताने का कष्ट करेंगे की अन्य राज्यों में अथवा केन्द्रीय अध्यापक पात्रता परीक्षा में सकल रिक्तियों के सापेक्ष कितने प्रतिशत अभ्यर्थी उत्तीर्ण हुए हैं और उत्तर प्रदेश में उत्तीर्ण अभ्यर्थियों का संख्या बल कितना है?यह हास्यस्पद ही है की इतना बड़ा प्रशासनिक अधिकारी इतने छोटे तथ्य की उपेक्षा करता है और जिसने इतने छोटे तथ्य की उपेक्षा की हो उसे इतना महत्वपूर्ण दायित्व किस आधार पर प्रदान किया गया है?
शायद अब अभ्यर्थियों को भी इस तथ्य का ज्ञान होने लगा है की सरकार हमारे पक्ष में नहीं है बल्कि यह कहना ज्यादा उचित रहेगा की सरकार प्राथमिक शिक्षा के ही पक्ष में नहीं है अन्यथा हमारे साईकिल वाले बाबा,पगड़ी वाले बाबा से प्राथमिक विद्यालयों में सहायक अध्यापकों की नियुक्ति हेतु २०१५ तक का समय न मांगते|हद हो गयी है,अभ्यर्थी परीक्षा दे चुके हैं,अपने अंकपत्र सह प्रमाणपत्र ले चुके हैं, बैंक ड्राफ्ट बनवा चुके हैं,लंबी लम्बी पंक्तियों मंग लग कर अपने आवेदन भी जमा कर चुके हैं,प्रत्येक अभ्यर्थी के लगभग १० हजार रूपये खर्च हो चुके हैं और श्रीमान जी का कहना है की हम प्रक्रिया में बदलाव लायेंगे क्योंकि इससे पहले लोग हांथी पर चढते थे और आज हमने साईकिल का आविष्कार कर लिया है|संख्या में अति न्यून अकादमिक समर्थक भी सरकार के कंधे पर बन्दूक रखकर निशानेबाजी से नहीं चूक रहे है|भाई, कहा भी गया है – जब सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का?मुलायम आते ही नकल विरोधी अध्यादेश को रद्द कर देते हैं तो उनका पुत्तर आते ही टीईटी को रद्द क्यों न कर दे? वैसे भी अखिलेश ने अपने चुनावों में इस तरह की उद्घोषणा पहले ही कर चुकी है और परीक्षा में असफल अभ्यर्थी अखिलेश भैया के पाँव पूज ही रहे हैं, लिहाजा टीईटी को निरस्त होना ही चाहिए|साथ ही बलात्कार पीडिता को नौकरी देने संबंधी बयान पर भी तो अमल करना है|वैसे भी, समाजवादियों की सरकार बनने से पहले ही,शपथ ग्रहण से भी पहले उत्तर प्रदेश की जनता ने चुनाव परिणामों की घोषणा के महज एक सप्ताह के अंदर जिस तरह की अराजकता झेली है उसे देखकर यही लगता है की आने वाले समय में यह अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार होगी और कहीं ऐसा न हो की हिन्दुस्तान के राजनैतिक इतिहास में अखिलेश का शासन एक काले अध्याय के रूप में जाना जाय, फिलहाल संभावना तो यही है और उसके संकेत भी मिलने लगे हैं|
अब अपने मूल विषय पर लौट चलते हैं,हमारे देश में बेसिक शिक्षा की प्रवृत्ति कैसी रही है और समय समय पर इस क्षेत्र में हमारे देश में किस प्रकार के परिवर्तन हुए है इन सब बातों का जानना बहुत ही जरूरी है|मुसलमानों के आने से पहले हमारे देश में बालक की प्राथमिक शिक्षा का प्रारम्भ माँ की गोद में होता था|यह वह समय था जब बालक को अक्षरारंभ के समय ग से गदहा नहीं, ग से गणेश पढाया जाता था|कहना न होगा की हमारे जीवन मूल्य आधुनिक मनोवैज्ञानिक अवधारणाओं से इस कदर मेल खाते थे की उनमें विरोध की कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं थी|हम पहले ही इस तथ्य से परिचित थे की शिक्षा का मूल उद्देश्य बालक के पूर्व ज्ञान में वृद्धि कर क्रमिक ढंग से बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है|स्पष्ट है ग से गदहा वाला पूर्वज्ञान बालक को गदहा ही बना सकता है,सर्वशास्त्र विशारद गणेश कदापि नहीं|जब इस देश में मुसलमानों का आगमन हुआ तब सबसे अधिक चोट हमारे प्राथमिक शिक्षा पर ही पड़ी|मदरसों में दी जाने वाली दीनी तालीम बालक को आत्मकेंद्रित बनाती थी,यह उसके व्यक्तित्व में सहिष्णुता के स्थान पर धर्मान्धता का संचार करती थी|मुग़ल काल में दारा शिकोह के सत्प्रयासों से मकतबों में दीनी तालीम के साथ साथ बुनियादी तालीम देने की भी व्यवस्था की गयी, किन्तु यह व्यवस्था बहुत दिनों तक नहीं चली और अंग्रजों के आगमन के साथ हमारी शिक्षा व्यवस्था का जो बंटाधार हुआ, वह आज तक बदस्तूर जारी है|
मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के आलोक में यह बात जग जाहिर है की व्यक्ति के व्यक्तित्व में उसकी शैशवावस्था और उसका बाल्यकाल सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं|व्यवहारवाद कहता है की एक शिशु को एक कुशल चिकित्सक, एक कुशल अभियंता,एक कुशल अभिनेता,एक कुशल दार्शनिक इत्यादि किसी भी कौशल के लिए प्रारम्भ से ही प्रशिक्षित किया जा सकता है और उसके अंदर बचपन में डाले गए संस्कार इतने दृढ होते हैं की वे पचपन क्या,पचासी क्या, आजीवन पीछा नहीं छोड़ते|ठीक यही बात कुसंस्कारों के संदर्भ में भी सत्य है|यहाँ पर संस्कार देने वाले शिक्षकों के लिए आवश्यक प्रशिक्षण और अध्यापक शिक्षा की महत्ता का पता चलता है|२२ और २३ अक्टूबर १९३७ में वर्धा नामक स्थान पर डॉ जाकिर हुसैन की अध्यक्षता में तत्कालीन भारतीय राजनीती में अपनी प्रभुता स्थापित कर चुके गांधी ने भारतीय विद्यालयों में प्राथमिक शिक्षा का एक बेहतरीन माडल तैयार किया|आमतौर से इसे भारत में प्राथमिक शिक्षा की वर्धा योजना अथवा बुनियादी तालीम के नाम से जाना जाता है|आज भी इसे शिक्षा जगत में बालक केंद्रित शिक्षा का बेमिसाल उदाहरण समझा जाता है|वर्धा योजना में बालक की शिक्षा को लेकर जिन उच्च आदर्शों की कल्पना की गयी थी, उनकी प्राप्ति बुनियादी तालीम के लिए प्रशिक्षित अध्यापकों के अभाव में संभव ही नहीं थी|अतः शिक्षकों को बुनियादी तालीम के लिए प्रशिक्षित करने हेतु १ वर्षीय अल्पकालीन और २ वर्षीय दीर्घकालीन पाठ्यक्रम की रूपरेखा तैयार की गयी|उस समय जबकि उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्ति गिने चुने ही मिलते थे, इन पाठ्यक्रमों में प्रवेश की योग्यता हाई-स्कूल निर्धारित की गयी थी|चूँकि उस समय तक भारत स्वतंत्र नहीं हो पाया था, अतः यह योजना असफल रही और स्वतंत्रता के पश्चात विकास के मुद्दों पर लालफीताशाही,नौकरशाही हावी हो गयी, लिहाजा सर्व शिक्षा के उद्देश्यों को ठन्डे बस्ते में डाल दिया गया|
तब से अब तक प्राथमिक शिक्षा को लेकर एक से एक बेहतरीन माडल प्रस्तुत किये जाते रहें और कभी नौकरशाही तो कभी हमारे देश का माननीय वर्ग उन सभी माडलों को नकारता रहा|शिक्षा को लेकर न तो कभी केन्द्र सरकार गंभीर रही और न ही किसी राज्य ने ही इस संदर्भ में अपनी सक्रिय रूचि प्रदर्शित की|सभी ने तालीम को एक निहायत ही गैर जरूरी चीज समझा और अपने राजनैतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए, जानबूझ कर जनता को अशिक्षित रखा|शिक्षकों के चयन में कभी भी पारदर्शिता नहीं बरती गयी यहाँ तक की प्रोफेसर साहब का कुत्ता भी डाक्टरेट की डीग्री लेकर सड़कों पर खुलेआम घूमने लगा और जब अति हो गयी तब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को हस्तक्षेप करना पड़ा और शोध के क्षेत्र में भी पात्रता का निर्धारण करना पड़ा|यहाँ भी संपन्न वर्ग की ही सुनी गयी|पात्रता के निर्धारण में न्यूनतम ५० प्रतिशत (आरक्षित वर्ग हेतु) तथा ५५ प्रतिशत (सामान्य वर्ग हेतु) की बाध्यता के साथ अकादमिक उपलब्धियों को सर्वोपरी माना गया|समझ में नहीं आता की जब मनोविज्ञान पृथक पृथक कार्यों के लिए पृथक पृथक अभिरुचियों की बात करता है, तो प्रत्येक पदों के लिए पृथक पृथक चयन परीक्षाएं क्यों नहीं आयोजित की जाती?और जब इस तरह का कोई नवाचार हमारे सामने है तो कुत्सित राजनीति द्वारा राह को कंटकाकीर्ण करना किस तरह से जायज है?
हमारे देश का संविधान पद और अवसर के समता की बात करती है और राजनीति वर्ग विशेष का तुष्टिकरण करती है|जब इससे आजिज आकर हमारे देश का कोई प्रतिभाशाली युवक आजीविका की खोज में दूसरे देशों का आश्रय ग्रहण करता है तो इसे प्रतिभा पलायन कहा जाता है|स्वतंत्रता के बाद से आज तक हम खोते ही आ रहे है और अगर यही नीति रही तो हम आगे भी खोते रहेंगे –
निजामे मयकदा साकी बदलने की जरूरत है|
हजारों हैं सफे ऐसी,न मय आई,न जाम आया||

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

यूपीटीईटी-बहुत कठिन है डगर पनघट की

भ्रष्टाचार का आरोप मढ़कर हम अपनी असफलता छुपा सकते हैं और सच का गला भी घोंट सकते हैं,विशेषकर जब यह बात उत्तर प्रदेश और उत्तर प्रदेश में शिक्षा की वर्तमान स्थिति के संदर्भ में कही जा रही हो तब हमें इस कथन की सत्यता जांचने के लिए अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ेगा|पूरे प्रदेश में इस बात को जोर शोर से प्रचारित और प्रसारित किया जा रहा है की उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद द्वारा नवम्बर में आयोजित परीक्षा में बड़े पैमाने पर धांधली हुई और अब इस आधार पर इस परीक्षा को रद्द कर देना चाहिए|मजे की बात तो यह है की परीक्षा में प्राथमिक स्तर पर लगभग २ लाख ७० हजार अभ्यर्थी उत्तीर्ण घोषित किये गए|क्या इसका यह अर्थ है की प्राथमिक स्तर पर परीक्षा में उत्तीर्ण समस्त २ लाख ७० हजार अभ्यर्थी बेईमान हैं?फिलहाल कथित टीईटी घोटाले के आरोप में उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद निदेशक श्री संजय मोहन समेत माध्यमिक शिक्षा परिषद के कुछ अन्य अधिकारी एवं कर्मचारी हिरासत में हैं,उन पर गैंगेस्टर लग चुका है और मामले की तफ्तीश चल रही है|
हमें यह नहीं भूलना चाहिए की उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री माननीय श्री अखिलेश यादव अपनी चुनावी सभाओं में मुख्यमंत्री बनने से पहले ही टीईटी निरस्त करने की सार्वजनिक घोषणा कर चुके हैं और इस घोषणा को आधार मानकर उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा विभाग के कुछ अधिकारी तथा मीडिया का एक विशिष्ट वर्ग उत्तर प्रदेश विधानसभा में समाजवादी पार्टी को स्पष्ट बहुमत पाता देखकर मतगणना की शाम से ही टीईटी उत्तीर्ण अभ्यर्थियों के विरुद्ध अनर्गल प्रलाप करने लगा|टीईटी के आधार पर नियुक्ति की मांग कर रहे अभ्यर्थियों पर पुलिसकर्मियों द्वारा बर्बरतापूर्ण लाठियां भी बरसाई गई|यही नहीं, विधानसभा के बाहर क्रमिक अनशन पर बैठे आंदोलनरत अभ्यर्थियों की व्यथा को किसी ने भी संज्ञान में लेने की आवश्यकता नहीं समझी और वर्तमान शासन ने भी टीईटी को लेकर अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है|टीईटी को लेकर असमंजस और उससे उपजे अवसाद के चलते संत कबीर नगर के अंगद चौरसिया और बुलंद शहर के महेंद्र सिंह की मृत्यु हो चुकी है|इससे पहले भी एक टीईटी उत्तीर्ण अभ्यर्थी की माँ नकारात्मक समाचार सुनकर स्वर्ग सिधार चुकी है|इन सब ख़बरों को लेकर हमारा युवा हतोत्साहित है और आक्रोशित भी|
हमें समस्या के मूल में जाना होगा|जनता को यह जानने का हक है की उसके खून पसीने की कमाई कहाँ जाती है और नौनिहालों की शिक्षा पर होने वाले व्यय की क्या सार्थकता है? हमारे देश को आजाद हुए ६४ वर्ष से अधिक हो गए हैं,हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने पराधीन भारत में स्वतंत्र भारत का जो स्वप्न देखा था,हम उसके आस पास भी नहीं हैं|अपने अधिकारों और कर्तव्यों की कौन कहे,इन ६४ सालों में हम आज तक समग्र साक्षरता के मह्त्वाकांक्षी लक्ष्य को भी हासिल नहीं कर पाए हैं|हालांकि,इतने सालों में हमने अच्छी उपलब्धि हासिल की है और आज साक्षरता के क्षेत्र में हम ब्रिटिश राज के १२ प्रतिशत के आकडें को पार करते हुए २०११ के आंकड़ों के अनुसार ७५.०४ प्रतिशत तक पहुँच गए हैं किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से हम आज भी विश्व साक्षरता के औसत (८४ प्रतिशत) से भी लगभग १० अंक निचले पायदान पर स्थित हैं|बात यही पर खत्म नहीं होती है,यदि हम नेपाल,बंगलादेश और पाकिस्तान जैसे संसाधनविहीन देशों को छोड़ दे तो हमारे अन्य पडोसी मसलन चीन,म्यामार,यहाँ तक की श्रीलंका जैसे छोटे देश भी साक्षरता के क्षेत्र में ९० प्रतिशत से ऊपर पहुँच चुके है|ध्यातव्य है की साक्षरता के ये आंकड़े ७ वर्ष से ऊपर आयु वर्ग की जनसँख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं|
हम योजना दर योजना मूल्य आधारित,गुणवत्तापरक और सामूहिक शिक्षा की बात करते तो हैं किन्तु जब इन्हें अमली जामा पहनाने का वक्त आता है तो हम बजट की कमी का रोना रोने लगते हैं|राज्य, केन्द्र पर दोषारोपण करता है और केन्द्र सरकार राज्यों को दोषी ठहराने लगती है|वर्तमान में भारत शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का मात्र ४.१ फीसदी व्यय कर रहा है जो आगे बढ़ कर लगभग ६ फीसदी होने का अनुमान है|सर्व शिक्षा अभियान केन्द्र सरकार की एक महत्वाकांक्षी योजना है जो शत प्रतिशत साक्षरता और शत प्रतिशत स्कूली शिक्षा के ध्येय को समर्पित है|सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत केन्द्र, राज्यों के प्राथमिक शिक्षा पर होने वाले समस्त व्यय का ६५ प्रतिशत स्वयं वहन करती है और शेष ३५ प्रतिशत व्यय राज्य सरकार वहन करती है|विशिष्ट बी टी सी से पूर्व प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा का सारा दारोमदार बी टी सी उत्तीर्ण अभ्यर्थियों पर ही निर्भर था किन्तु योग्य अध्यापकों की अनुपलब्धता के चलते बी. एड. उत्तीर्ण अभ्यर्थियों को भी प्राथमिक शिक्षा के लिए अर्ह मानते हुए १९९८ से विशिष्ट बी टी सी की व्यवस्था अपनाई गयी|नयी व्यवस्था होने के कारण इसका विरोध हुआ किन्तु तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की दृढता के चलते किसी की भी एक न चली और राज्य में प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए|२००१ में विशिष्ट बी टी सी के आवेदन तो निकाले गए किन्तु तकनिकी बाधाओं के चलते नियुक्तियां नहीं हो पायी|२००४ और २००८ में पुनः विशिष्ट बीटीसी के माध्यम से राज्य में प्राथमिक शिक्षकों का चयन किया गया|
चूंकि इस प्रक्रिया में चयन का आधार मात्र अकादमिक उपलब्धियां थी अतः अनेक मेधावी छात्र जिनकी अकादमिक उपलब्धि संतोषजनक थी,अध्यापक बनने की प्रक्रिया से बाहर हो गए|दूसरी ओर,ऐसे अभ्यर्थी जिनके पास तकनिकी अथवा जुगाडू डिग्रियां थी, प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापक नियुक्त कर लिए गए|शिक्षा के क्षेत्र में फर्जीवाडा कोई नई बात नहीं है|किसी दूसरे के स्थान पर परीक्षा दे देना,डिग्रियों में हेर फेर,प्रश्न पत्र आउट करवा देना यहाँ तक की संसाधनों के नितांत अभाव के बावजूद उच्च शिक्षण संस्थान संचालित करने की मान्यता प्राप्त कर लेना सब कुछ चलता है|जनता यह जानना चाहती है की उत्तर प्रदेश में नक़ल माफियाओं और शिक्षा माफियाओं की जड़े कितनी गहरी है और हाल ही में बोर्ड परीक्षाओं के दौरान प्रश्न पत्र लीक होने की घटनाओं को कितनी गंभीरता से लिया गया और उस पर अब तक क्या क्या कार्यवाहियां हुई हैं?अभी हाल ही में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफ़ेसर बिंदा प्रसाद मिश्र ने अपनी हत्या की साजिश रचे जाने की आशंका व्यक्त की है|कारण स्पष्ट है, कुलपति महोदय शिक्षा माफियाओं के राह में रोड़ा बने हुए है और प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्त अध्यापकों के अंकपत्रों तथा प्रमाण पत्रों के सत्यापन में अपना सहयोग दे रहे हैं|
इन्हीं सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए और फर्जीवाड़े पर लगाम लगा कर योग्यता के वास्तविक पहचान के लिए राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद ने अध्यापक पात्रता परीक्षा आयोजित करने का निश्चय किया|उत्तर प्रदेश में आयोजित टीईटी की परीक्षा राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद के मानकों के अनुरूप ही हुई थी और इस परीक्षा में पारदर्शिता तथा शुचिता बनाये रखे जाने का पूर्ण प्रबंध किया गया था|खेद का विषय है की राज्य सरकार द्वारा मुख्य सचिव जावेद उस्मानी की अध्यक्षता में गठित उच्च स्तरीय समिति टीईटी के आधार पर शिक्षकों की नियुक्ति के बिंदु तलाशने के स्थान पर इस प्रक्रिया को निरस्त किये जाने के बिंदु तलाशने में अपनी ऊर्जा अधिक व्यय कर रही है|सोचने की बात तो यह है की ९० मिनट की सार्वभौमिक(टीईटी अभ्यर्थियों के लिए) समय सीमा के अंदर जो अभ्यर्थी ९० अंक (सामान्य वर्ग के लिए) भी नहीं ला सका, वह प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्त होने का किस तरह का नैतिक आधार रखता है? और उसे प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्त ही क्यों किया जाय जबकि वह निर्धारित समय सीमा के अंदर कक्षा ८ स्तर तक के प्रश्नों का भी समुचित उत्तर नहीं दे सका?अब यदि यह मान भी लिया जाय की माननीय उच्च न्यायालय के आदेश के क्रम में जो भी अंक बढ़ाये गए, उनमे धांधली हुई है तो इसका दोषी वह प्रतिभाशाली युवक कैसे है, जिसने स्वयं के बल परीक्षा में उच्च अंक प्राप्त किये और इस आधार पर वह प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्त होने का नैतिक आधार रखता है?आप नियुक्ति के पश्चात भी जांच करवा सकते हैं और आपका यह अधिकार संवैधानिक भी है किन्तु यदि संजय मोहन को आधार बनाकर इस प्रक्रिया को निरस्त किया जाता है तो हमें यह कहना होगा उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार का पौधा एक दरख्त बन चुका है क्योंकि मात्र राजनैतिक विद्वेष के चलते एक अच्छी व्यवस्था को लागू होने से पहले ही खत्म कर दिया गया|प्रधान,शिक्षा मित्र और बीएसए गठजोड़ हमारे प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा को पहले ही निगल चुका है|

सोमवार, 26 मार्च 2012

अध्यापक पात्रता परीक्षा में गलत क्या है?

हमारे देश को आजाद हुए ६४ वर्ष से अधिक हो गए हैं,हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने पराधीन भारत में स्वतंत्र भारत का जो स्वप्न देखा था,हम उसके आस पास भी नहीं हैं|अपने अधिकारों और कर्तव्यों की कौन कहे,इन ६४ सालों में हम आज तक समग्र साक्षरता के मह्त्वाकांक्षी लक्ष्य को भी हासिल नहीं कर पाए हैं|हालांकि,इतने सालों में हमने अच्छी उपलब्धि हासिल की है और आज साक्षरता के क्षेत्र में हम ब्रिटिश राज के १२ प्रतिशत के आकडें को पार करते हुए २०११ के आंकड़ों के अनुसार ७५.०४ प्रतिशत तक पहुँच गए हैं किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से हम आज भी विश्व साक्षरता के औसत (८४ प्रतिशत) से भी लगभग १० अंक निचले पायदान पर स्थित हैं|बात यही पर खत्म नहीं होती है,यदि हम नेपाल,बंगलादेश और पाकिस्तान जैसे संसाधनविहीन देशों को छोड़ दे तो हमारे अन्य पडोसी मसलन चीन,म्यामार,यहाँ तक की श्रीलंका जैसे छोटे देश भी साक्षरता के क्षेत्र में ९० प्रतिशत से ऊपर पहुँच चुके है|ध्यातव्य है की साक्षरता के ये आंकड़े ७ वर्ष से ऊपर आयु वर्ग की जनसँख्या का प्रतिनिधित्व करते हैं|
वास्तव में,इसके मूल में अंग्रेजों द्वारा स्थापित वह दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली है,जिससे हम आज तक नहीं उबर पाए हैं|अंग्रेजों ने शिक्षा के क्षेत्र में अधोमुख निस्यन्दन की वह प्रक्रिया विकसित की जिसके तहत मिशनरी स्कूलों से शिक्षा प्राप्त व्यक्ति हमारी समग्र शिक्षा व्यवस्था का नियामक बन बैठा|शिक्षा में भारतीयता और राष्ट्रवाद के तत्वों को एक निहित उद्देश्य के चलते धीरे धीरे सीमित किया गया और आज वह पूरी तरह से विलुप्त हो गया है|हमारे शिक्षालयों में संसाधनों का भारी अभाव है और योग्य शिक्षकों की कमी है|हम योजना दर योजना मूल्य आधारित,गुणवत्तापरक और सामूहिक शिक्षा की बात करते तो हैं किन्तु जब इन्हें अमली जामा पहनाने का वक्त आता है तो हम बजट की कमी का रोना रोने लगते हैं|राज्य, केन्द्र पर दोषारोपण करता है और केन्द्र सरकार राज्यों को दोषी ठहराने लगती है|यह बात सर्वविदित है की जब तक विद्यालयों में योग्य शिक्षक नहीं होंगे,सर्व शिक्षा अभियान के मह्त्वाकांक्षी उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता और यह बात तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब हम यह मान कर चलते हैं की ६ से १४ वर्ष तक के बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा दी जानी चाहिए क्योंकि उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने १९९३ में यह स्पष्ट किया था की १४ साल तक के समस्त बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्त करना एक मौलिक अधिकार है यद्यपि यह राज्य पर निर्भर करता है की वह इस बाध्यकारी व्यवस्था को कैसे लागू करती है?
यह १८३५ में लार्ड मैकाले द्वारा स्थापित मात्र अंग्रेजी शिक्षण की वह व्यवस्था नहीं है जिसका एकमात्र उद्देश्य लिपिकों की एक फ़ौज खड़ी करना हो और जिसके द्वारा भारत सरकार अपने प्रशासनिक उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए मानव संसाधन विकसित करने के स्थान पर न्यूनतम साक्षरता हासिल करने के उद्देश्य तक ही सीमित रहे बल्कि अनिवार्य शिक्षा क़ानून का आशय ६ से १४ वर्ष की आयु वर्ग तक के बच्चों में उनके विकास क्रम के अनुसार उनके बौद्धिक,शारीरिक,मानसिक,नैतिक और वैज्ञानिक जिज्ञासाओं का सम्यक समाधान कर उनके अंदर एक वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि विकसित करना है और जब शिक्षा के क्षेत्र में इन दूरगामी उद्देश्यों की पूर्ति करना है तो योग्य शिक्षकों का होना अपरिहार्य है लिहाजा योग्य शिक्षकों के चयन का मानक मात्र प्रशिक्षण का प्रमाणपत्र पाना ही नहीं होना चाहिए|इन्हीं सब उद्देश्यों को केन्द्र में रखते हुए केन्द्र सरकार ने १७ अगस्त १९९५ को राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद का गठन किया|इससे पहले राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद के अंतर्गत अधीनस्थ के रूप में कार्य कर रही थी और १९७३ से लेकर १९९५ तक इसका कार्य मात्र राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद को विविध मसलों पर सलाह देने तक ही सीमित था|१९८६ के राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इस बात का स्पष्ट रूप से अनुभव किया गया की विभिन्न बोर्डों में न सिर्फ योग्य अध्यापकों की भारी कमी है वरन उनके पाठ्यक्रमों में भी पर्याप्त भिन्नता है|देश के अनेक राज्यों में प्राथमिक शिक्षा का अधिकाँश भार इंटर उत्तीर्ण अथवा कहीं कहीं हाई स्कूल उत्तीर्ण ऐसे अप्रक्षित अध्यापक वहन कर रहे हैं, जिन्हें न तो बाल मनोविज्ञान की सम्यक जानकारी है और न ही वे शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले नवाचारों से परिचित हैं|
वर्तमान में भारत शिक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का मात्र ४.१ फीसदी व्यय कर रहा है जो आगे बढ़ कर लगभग ६ फीसदी होने का अनुमान है|इसका यह साफ़ अर्थ है, हमें बड़ी मात्रा में शिक्षक चाहिए और ऐसे शिक्षक चाहिए जो वैश्विक मानदंडों पर खरे उतरते हो|हम जानते हैं की शिक्षा के क्षेत्र में निर्मित पिछली समस्त योजनाएं नाकारा साबित हो चुकी हैं और यह स्थिति तब है जब केन्द्र और राज्य सरकारों के साथ साथ हमारे देश को शिक्षित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक संस्थाएं सक्रिय हैं और वे हमारे देश को अकेले शिक्षा के मद में प्रतिवर्ष करोड़ो,अरबों रुपये अनुदान अथवा ऋण के रूप में उपलब्ध करवाती हैं|२००८-०९ के आंकड़े बताते हैं की प्राथमिक शिक्षा के शेत्र में समस्त भारत में प्रति ३२ विद्यार्थी पर १ शिक्षक उपलब्ध है, देश के १४६ जिले ऐसे हैं जहाँ ४० विद्यार्थियों पर १ शिक्षक उपलब्ध है और यदि इन आकडों में दूर दराज के ग्रामीण अंचलों को भी शामिल कर लिया जाए तो अनेक ऐसे विद्यालय हैं जहाँ १०० विद्यार्थियों पर मात्र एक शिक्षक की उपलब्धता है और वह भी अप्रशिक्षित होने के साथ ही प्राथमिक शिक्षा के लिए नितांत अयोग्य है|उत्तर प्रदेश के समस्त प्राथमिक विद्यालयों के १२.०८ प्रतिशत और बिहार के ११.९० प्रतिशत विद्यालयों में शिक्षक छात्र अनुपात १०० से भी ऊपर है|आंध्र प्रदेश,अरुणांचल,दिल्ली,हिमाचल,कर्नाटक,केरल,महाराष्ट्र जैसे १४ राज्य ऐसे हैं जहाँ १०० से ऊपर अनुपात वाले विद्यालय .५ प्रतिशत से भी कम हैं और उच्च साक्षरता दर के रूप में इनका परिणाम हमारे सामने है|उत्तर प्रदेश और बिहार में प्राथमिक शिक्षा बस राम भरोसे ही चल रही है क्योंकि इन दो राज्यों में प्राथमिक शिक्षा का सम्पूर्ण राजनीतिकरण हो चूका है|राज्य के परिषदीय विद्यालयों में ग्राम प्रधानों और सभासदों का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है क्योंकि इंटर अथवा स्नातक शिक्षा मित्र ग्राम प्रधानों तथा सभासदों द्वारा अनुचित तरीके से चुने जाते हैं और इनके संपर्क बेसिक शिक्षा अधिकारी तक से होने के कारण मिड डे मील योजना में भारी उलट फेर करते हुए पाए जाते हैं|
आज स्थिति यह है की पूरे देश में केवल नाम मात्र की शिक्षा दी जा रही है|वास्तविकता यह है की भारत में शिक्षा को मटियामेट करने का कार्य तब से प्रारम्भ हुआ जब से प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में संविदा के आधार पर उन लोगों को शिक्षक बना कर नियुक्त किया जाने लगा जो खुद भी इंटर पास नहीं कर सके थे|उदहारण के लिए पश्चिम बंगाल और असं जैसे राज्यों में कोई भी कक्षा १० उत्तीर्ण व्यक्ति बिना किसी प्रशिक्षण के प्राथमिक विद्यालयों में अध्यापन का कार्य कर सकता है|फलस्वरूप,आकडें बताते हैं की आज भी हमारे देश के विद्यालयों में लगभग ६ लाख शिक्षक ऐसे हैं जिनमें न्यूनतम शैक्षिक अभिरुचि ही नहीं है|जो या तो अयोग्य है अथवा अप्रशिक्षित हैं|
इन्ही सब समस्यायों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद ने राष्ट्रीय अध्यापक पात्रता परीक्षा का विचार किया और २०११ में प्रथम अध्यापक पात्रता परीक्षा आयोजित की|इस परीक्षा को अध्यापक चयन हेतु बाध्यकारी बनाते हुए यह प्रावधान किया गया की उक्त परीक्षा में न्यूनतम ६० प्रतिशत अंक अर्जित करना अनिवार्य होगा और केन्द्र सरकार द्वारा मान्यताप्राप्त निजी संस्थानों में भी शिक्षक चयन हेतु इसे आधार बनाया जाना चाहिए|जुलाई २०११ में आयोजित प्रथम पात्रता परीक्षा में लगभग ७ लाख १० हजार अभ्यर्थी सम्मिलित हुए जिनमे से महज ९७,९१९ अभ्यर्थी ही इस परीक्षा में सफल हो सके शेष ८६ प्रतिशत अभ्यर्थी असफल हुए और उन्होंने सम्पूर्ण परीक्षा प्रक्रिया का ही आलोचना करना प्रारम्भ कर दिया|चूँकि रिक्तियों के सापेक्ष सफल होने वाले अभ्यर्थियों की तादाद कम थी अतः यह प्रावधान भी किया गया की राज्य सरकार चाहे तो वह अलग से प्रदेश स्तर पर अध्यापक पात्रता परीक्षा आयोजित कर सकती है किन्तु आगे से अध्यापको के चयन का आधार केवल पात्रता परीक्षा ही होगी|प्रारम्भ में कोई भी राज्य राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद की इस अवधारणा से सहमत नहीं हुआ और उत्तर प्रदेश में तो इससे मुक्ति पाने के लिए अनेक बार परिषद के मसौदे को ठुकराने की चेष्टा की गयी किन्तु देश हित में परिषद के अड़ियल रवैये के चलते सरकार ने घुटने टेके और आनन फानन में उत्तर प्रदेश अध्यापक पात्रता परीक्षा आयोजित की गयी|प्रश्न पत्र का स्वरुप सरलतम रखा गया ताकि अधिक से अधिक लोग इस परीक्षा को पास कर सके और प्रदेश में अनुमानित १ लाख ९० हजार रिक्तियों को आसानी से भरा जा सके| प्रश्न पत्र में लगभग ९० फीसदी प्रश्न शिक्षा मित्रों को प्रशिक्षण हेतु दिए गए अभ्यास पुस्तिकाओं से ही पूछे गए ताकि शिक्षा मित्र भी इसे आसानी से पास कर सके|इसके बावजूद लगभग ५७ प्रतिशत छात्र अनुतीर्ण हुए और इससे मुक्ति हेतु अदालत का दरवाजा खटखटाने लगे|माननीय उच्च न्यायालय ने भी योग्यता के मूल्यांकन की इस प्रणाली में आस्था व्यक्त की और अध्यापक पात्रता परीक्षा के विरुद्ध लंबित तमाम याचिकाओं को प्रथम दृष्टया ही निरस्त कर दिया|अब न्यायालय में पात्रता परीक्षा के विरुद्ध कोई भी दमदार याचिका नहीं है लेकिन पात्रता परीक्षा को लेकर एक नया विवाद खड़ा हो गया है|
इस विवाद के केन्द्र में पात्रता परीक्षा के आधार पर ७२,८२५ रिक्तियों के भरे जाने हेतु बेसिक शिक्षा परिषद द्वारा प्रकाशित विज्ञप्ति है|यादव कपिल देव लालबहादुर और राज्य तथा अन्य द्वारा उच्च न्यायालय में दायर याचिका ने पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण अभ्यर्थियों को आंदोलित कर दिया है|इस याचिका में पात्रता परीक्षा को नहीं बल्कि बेसिक शिक्षा विभाग को कटघरे में खड़ा किया गया है|मामला यह है की बेसिक शिक्षा अधिनियम १९७३ के अनुसार प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में चयन हेतु नियुक्ति प्राधिकारी बेसिक शिक्षा अधिकारी होगा और इस बार के विज्ञापन में इस परम्परा को तोडा गया है|स्पष्ट है की याचिका तकनिकी रूप से समस्त प्रक्रिया को उलझाने के निमित्त लायी गयी है और इस याचिका के पीछे संविधान की आंशिक शक्ति भी नहीं है बल्कि इस एक याचिका के कारण पूरे प्रदेश में शिक्षा के अधिकार अधिनियम का खुल्लम खुल्ला मखौल उडाया जा रहा है और देश का एक अदना सा नागरिक भी इस बात को स्पष्ट रूप से समझता है की न्यायालय मूल अधिकारों का सबसे बड़ा संरक्षक है|अतः,मेरा आंकलन है की माननीय उच्च न्यायालय को इस याचिका को निरस्त कर देना चाहिए और उत्तीर्ण अभ्यर्थियों के पीछे विधि की शक्ति विद्यमान होने के कारण ऐसा होगा भी|फिर भी इस याचिका ने राज्य में नियुक्तियों के भविष्य को प्रभावित किया है और नियुक्तियों में जितना ही देर होता जा रहा है उत्तीर्ण अभ्यर्थियों के मन में उतना ही आक्रोश भरता जा रहा है|अकादमिक में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले किन्तु पात्रता परीक्षा में फिसड्डी अभ्यर्थी टीईटी प्राप्तांकों को चयन का आधार बनाये जाने के विरुद्ध हैं किन्तु विविध बोर्डों के मध्य असमानता वाली कसौटी पर खरे न उतरने के कारण राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद भी उनके मांगों और प्रस्तावों को गंभीरता से नहीं ले रहा है|बेसिक शिक्षा विभाग के अधिकाँश अधिकारी और लगभग ९० फीसदी ब्यूरोक्रेसी टीईटी प्राप्तांकों को चयन का आधार बनाये जाने को न्यायोचित मानती है और शिक्षा के अन्तराष्ट्रीय मानकों पर खरा उतरने के लिए यह जरूरी भी है|जिस प्रकार एक अयोग्य माली पानी और खाद के प्रयोग से अनभिग्य होने के कारण पूरे बगिया को उजाड कर रख देने का प्रधान कारण बनता है ठीक उसी प्रकार एक अयोग्य शिक्षक समस्त राष्ट्र को उजाड सकता है|अध्यापक पात्रता परीक्षा दूध में से मक्खन निकालने की प्रक्रिया है अतः इसके आधार पर चयन पूरी तरह न्यायसम्मत है और जिस प्रकार ६ से १४ वर्ष तक के बच्चों के लिए शिक्षा एक मौलिक अधिकार है ठीक उसी प्रकार योग्य शिक्षक द्वारा शिक्षा ग्रहण करना भी उनका मौलिक अधिकार होना चाहिए क्योंकि संविधान द्वारा अनुच्छेद २१ में दिया गया जीवन रक्षा का अधिकार तब तक व्यर्थ है जब तक सम्मानजनक जीवन जीने के लिए आवश्यक उपकरणों का भी प्रबंध नहीं कर दिया जाता|शिक्षा, जीवन रक्षा के अधिकार का एक अनिवार्य उपकरण है और इस उपकरण का उचित समय पर उचित प्रयोग एक योग्य अध्यापक ही बता सकता है|